एलीन लकड़ा:
मैं पिछले कुछ सालों से ही नेतरहाट आंदोलन के साथ जुड़ी हुई हूँ। और जब से आंदोलन को समझ पायी हूँ मेरे मन में कई बार एक सवाल पैदा हुआ है कि लगभग तीन दशक से चल रहे इस आंदोलन के बारे में मुझे पहले पता क्यों नहीं था? हालांकि हमारे लोगों को “नेतरहाट फील्ड फ़ाइरिंग” के बारे में बात करते हुए तो ज़रूर सुना था। मेरा घर गुमला ज़िले में है, और मेरी शुरुआती पढ़ाई वहीं हुई है लेकिन अफसोस है कि मेरे घर के करीब चल रहे इस संघर्ष को मैं पहले नहीं समझ पायी।
आज़ादी के कुछ वर्षों बाद ही सन 1954 में मैनूवर्स फील्ड फ़ाइरिंग एंड आर्टिलेरी प्रैक्टिस एक्ट 1936 की धारा 9 के तहत, झारखंड के नेतरहाट पठार में सात गाँवों को फील्ड फ़ाइरिंग रेंज के लिए अधिसूचित किया गया था। साल दर साल फायरिंग रेंज की अवधी और सीमा को बढ़ाया गया और इसके क्षेत्र में लातेहार और गुमला जिले के 245 गाँव आते हैं। इस विस्तार के विरोध में 22 मार्च 1994 को फायरिंग अभ्यास के लिए आयी सेना को आदिवासी महिलाओं की अगुवाई में वापस जाने को मजबूर कर दिया था। फायरिंग रेंज से लगभग ढाई लाख लोगों के विस्थापित होने की संभावना है जिसमें 90 से 95% स्थानीय आदिवासी समाज से हैं जिनकी अस्मिता, अस्तित्व और आजीविका उनके ज़मीन और जंगल से जुड़ी हुई है। अपनी ज़मीन और जंगल को बचाये रखने के लिए आदिवासी समाज पिछले 28 साल से “जन संघर्ष समिति (जन संगठन)” के बैनर तले लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर रहा है। लेकिन आज भी उनको डर है कि कहीं सरकार अवधि का विस्तार न कर दे, क्योंकि अभी तक नेतरहाट फील्ड फ़ाइरिंग रेंज के रद्द होने की अधिसूचना राज्य सरकार द्वारा जारी नहीं की गयी है।
देश भर के आदिवासियों के संघर्ष के साथ आज भी राष्ट्रीय पटल पर मीडिया खड़ी नहीं दिखती, न ही वो पहले खड़ी थी। सवर्ण प्रभुत्व वाली भारतीय मीडिया में आदिवासियों की न के बराबर संख्या के कारण उनके संघर्ष और मुद्दों को आज भी जगह नहीं मिलती। नेतरहाट के बारे में भी कुछ-एक खबरें ही अखबारों में छपी थी। नेतरहाट के अगुवे, 1994 में छपी पीयूडीआर (People’s Union for Democratic Rights, Delhi) की रिपोर्ट का जिक्र कई बार करते हैं। वे कहते हैं कि जल जंगल और ज़मीन खोने का डर, पीयूडीआर की रिपोर्ट आने के बाद और गहरा हो गया और उसी रिपोर्ट से पता चला कि फील्ड फ़ाइरिंग प्रैक्टिस रेंज को अब स्थायी बनाया जाएगा। अभी भी नेतरहाट फील्ड फ़ाइरिंग रेंज के सवाल पर इंटरनेट में गूगल करने से पीयूडीआर की यही एकमात्र रिपोर्ट आती है जो विस्तार से इसकी जानकारी देती है।
आश्चर्य की बात यह है कि शुरू के दौर में इस आंदोलन से जुड़े युवाओं ने अपनी अपनी क्षमता से आने वाले भविष्य में इस संघर्ष को सुदृढ़ बनाने के लिए योगदान दिया हैं। पत्रकारिता, किताब-लेखन, आंदोलन के गाने तथा डॉक्युमेंट्री फिल्म तैयार करके आंदोलन को और अधिक सघन बनाया है। जेरोम दा के द्वारा लिखित किताब “जान देंगे ज़मीन नहीं” इस विषय पर एक विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करती है। इसी तरह डॉक्युमेंट्री फिल्म “किसकी रक्षा” एक बेहतरीन और जीवंत दस्तावेज है।
मैं देश में चल रहे कई सामाजिक आंदोलनों को करीब से देख रही हूँ, लेकिन नेतरहाट आंदोलन कई मायने में मुझे व्यक्तिगत तौर पर अलग लगता है। इतनी लंबी और बड़ी लड़ाई लड़ने वाला नेतरहाट आंदोलन सही अर्थ में एक जनांदोलन है, जिसका कोई एक विशेष अगुवा नहीं है जिसे ओहदे की कुर्सी में सजाया जाए। देश के तथाकथित “मुख्यधारा” के आंदोलनों के नेताओं की तरह यहाँ के अगुवे में से किसी का भी चेहरा चमकते हुए केंद्र बिन्दु में नहीं है। हालांकि अब इस आंदोलन के एक चेहरे के रूप में संगठन के सचिव जेरोम जेराल्ड कुजूर दिखाई देते हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि मैं उनके ही माध्यम से ही इस आंदोलन से जुड़ पायी हूँ। मैं यह भी बताना चाहूंगी कि जेरोम दा से मेरा जुड़ना इसलिए आसान हो पाया क्योंकि मैं काम के लिए बड़े शहर दिल्ली आयी हूँ, न कि मैं गुमला की हूँ। इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में भले ही जेरोम दा इस आंदोलन के एक चेहरे के रूप में दिखते हैं, लेकिन सचिव का कार्यभार ख़त्म होने पर समिति, सर्वसम्मति से नया सचिव चुन लेगी।
आदिवासियों के सामाजिक ढांचे में निहित सामूहिकता से जन्मा यह आंदोलन आज उसी सामाजिक ढांचे का एक अंग बन गया है। ज़मीनी संघर्ष के सवाल अब सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित हो चुके हैं। जेरोम दा बताते हैं कि आंदोलन शुरू होने के पहले से ही सप्ताह के प्रत्येक शनिवार को सभी लोग गाँव के आखरा में मिलकर सामूहिक नाच-गान करते थे। बाद के दिनों में फिर समिति के द्वारा नया नियम तय हुआ और लोग नगाड़े की एक विशेष ताल में जुलूस करके आखरा में मिलने लगे। एक गाँव में नगाड़ा का बजना शुरू होते ही अन्य डूब क्षेत्र के गाँवों में भी प्रभावित लोग अपने-अपने नगाड़े लेकर अखारों में एकजुट हो जाते थे। उसी नगाड़े की धुन आगे चलकर कोई विशेष सूचना लेने या एकजुट होने का माध्यम भी बन गयी और जब भी नगाड़े की यह आवाज़ सुनाई देती, लोग खुद ब खुद अपने घर के काम छोड़कर एक साथ जमा हो जाते।
उसी तरह विरोध दर्ज करने एवं अपनी सहभागिता दिखाने के लिए आंदोलनरत महिलाओं ने एक अनोखा तरीका अपनाया हैं जहाँ वे हरी पत्तियों वाले पेड़ों की छोटी डालियों (हरियर डाहुरा) को हर गाँव के प्रत्येक दरवाजे में खोंस देते थे। उसी तरह छोटे बच्चे मशाल जुलूस निकालकर नारे लगाना सीख गए हैं। चट्टानों, पेड़ों और दीवारों पर “जान देंगे ज़मीन नहीं” के नारे लिख दिये गए, चैनपुर क्षेत्र के अगुआ प्लासिदिउस टोप्पो ने बताया, “आंदोलन करने की शैली सामाजिक जीवन का एक अहम हिस्सा बन गयी है। आंदोलन का प्रभाव केवल संगठन की कार्यशैली में ही नहीं परंतु लोगों के सोच विचार में भी पड़ता है।” इस तरह यह आंदोलन आदिवासी समाज का एक प्रतिबिंब है। आदिवासी समाज में कोई एक व्यक्ति के लिए सत्ता परिभाषित नहीं होती है। चाहे वह व्यक्ति समाज का ग्राम प्रधान या पड़हा पंचायत के प्रधान ही क्यों न हो। प्रधान होने का अर्थ ज़िम्मेदारी लेना होता है न कि सत्ता जमाना। समाज के अन्य व्यक्तियों की तरह ही प्रधान एक ही धाइर में बैठकर हड़िया पीते हैं, बिहा भात खाते हैं तथा गाँव के किसी भी परिवार के मदइत में जाते हैं। उनके कोई चेला-चेपटा नहीं होते हैं। उनके बैठने के लिए कोई विशेष कुर्सी नहीं होती है। उन्हें अंदर के रासवा घर में घुसाकर स्पेशल अँग्रेजी दारू पिलाना नहीं पड़ता है।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि नेतरहाट आंदोलन के अगुवे, विधायक और सांसद बनने के सपने नहीं देखते हैं। आंदोलन के पदधारक और समिति के अन्य लोगों को एक बराबर दर्जा है। आंदोलन में मज़दूर, किसान, शिक्षक, सरकारी कर्मचारी, महिला, युवा और बच्चे सभी एक साथ और एक ही घेरे में अगल-बगल बैठकर बैठकी करते हुए दिखते हैं। महिलाओं को इस आंदोलन में जगह बनाने के लिए कोई विशेष संघर्ष करना नहीं पड़ता क्योंकि सामाजिक ढांचे में महिलाएं दब कर नहीं रही हैं। वे दृढ़ता पूर्वक अपनी बात रखती हैं, उनके लिए अपनी बात रखना मुश्किल काम नहीं हैं। मार्च 1994 में महिलाओं द्वारा, नेतरहाट पठार से सैनिकों की गाड़ी को वापस भेजने की घटना ऐतिहासिक है और इस तरह से आंदोलन में महिलाओं की ताकत झलकती है।
गुमला क्षेत्र की महिला अगुआ रोज़ मेरी खाखा ने मुझे बताया, “महिलाएं ज़मीन और जंगल के महत्व को नज़दीक से समझ पाती हैं। क्यूंकि वे दैनिक गतिविधियों में जंगल के साथ एक विशेष संबंध रखती हैं।” फरवरी 2020 की एक जनसभा को संबोधित करते हुए एक महिला साथी फ्रांसिस्का ने कहा था, “जंगल हमारे लिए बैंक की तरह है क्योंकि हम अपनी ज़रूरत के समय ज़रूरत का सामान जंगल से लेकर आते हैं।” इन अनुभवों के साथ मेरे लिए यह बिलकुल साफ हो गया कि जंगल का महत्व कितना है। किस तरह से यह आदिवासी समाज के लिए जीवन जीने का सुरक्षा कवच है। सुरक्षित रहने से हम अपने तरीके से अच्छे समाज का निर्माण कर सकते हैं।
आंदोलन के लिए, प्रभावित क्षेत्र के हर घर में जलता हुआ चूल्हा, परिवार की एक इकाई है और वह जनसंघर्ष समिति का हिस्सा है। एक बार हिस्सा बन जाने के बाद विस्थापन विरोधी इस आंदोलन में उनकी भागीदारी तय करना समाज का निर्णायक फ़ैसला रहा है। सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक निर्णय, सामूहिक कार्य ही संगठन की मजबूती का मूल कारण है और सर्वसम्मति निर्णय का मूल आधार है। यहाँ सभी अगुवे, पुरखों के द्वारा गढ़ी गयी संघर्ष की संस्कृति को आने वाले पीढ़ी तक पहुँचाने का भरपूर प्रयास करते हैं और भविष्य और वर्तमान को लेकर चिंतित भी रहते हैं।
प्रत्येक वर्ष, एक खास समय और जगह युवाओं के लिए तय किया जाता है ताकि उनमें आंदोलन की समझ विकसित हो और उनमें सही और गलत की पहचान करने की क्षमता बढ़े। उन्हें जनांदोलन के गाने भी सिखाए जाते हैं और उन गानों के माध्यम से वे विस्थापित और ठगे जाने का प्रतिरोध ज़ाहिर करते हैं। युवाओं के नेतृत्व और भागीदारी पर महुआडाँड क्षेत्र की युवा स्मृति कुजूर का कहना था, “जन संघर्ष समिति ने हम युवाओं के विचार और नेतृत्व को प्रोत्साहन दिया है। हर युवा में आंदोलन के प्रति रुचि, उनके माँ और बाप का संघर्ष है। साथ ही विरोध स्थल में सामूहिक डॉक्युमेंट्री फिल्म (किसकी रक्षा) की स्क्रीनिंग के माध्यम से कम से कम 3 पीढ़ी के लोग एक पंक्ति में खड़े हो पाते हैं।”
आज़ादी के बाद देश के विकास के लिए अपना योगदान तय करते हुए और राष्ट्र की सुरक्षा के संदर्भ में देशभक्ति की भावना को आगे रखते हुए, यहाँ के लोगों ने अपने गाँवों के जंगल और ज़मीन को फायरिंग रेंज के लिए 30 साल तक दिया था। इंसान होने के नाते हर इंसान पर भरोसा रखने वाले आदिवासी समाज ने भारत सरकार पर भरोसा रखा, लेकिन बदले में उनको जानमाल की अपूर्ण क्षति झेलनी पड़ी। पूर्वज जतरा टाना भगत से प्राप्त संघर्ष की विचारधारा और सांस्कृतिक विरासत ने नेतरहाट आंदोलन को अहिंसात्मक सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया। तब से लेकर आज तक इस अहिंसात्मक संघर्ष की, अधिसूचना रद्द करने की मांग अभी तक पूरी नहीं हुई है। लड़ाई के इस लंबे समय में समिति की तरफ से सरकार से बातचीत करके इस मामले को सुलझाने के लिए असंख्य प्रयास किए गए हैं। अधिसूचना की अवधी 11 मई 2022 को खत्म होगी, जबकि इस समय फ़ाइरिंग रेंज की अवधि विस्तार का ऐतिहासिक दर्दनाक अनुभव समिति के बिलकुल सामने है। हाल ही में, अंतिम राह अपनाते हुए समिति ने मार्च में लगभग 200 किलोमीटर की पदयात्रा रखी थी और झारखंड के राज्यपाल को अपना ज्ञापन सौंपते हुए वे अभी इस उम्मीद में हैं कि अधिसूचना रद्द हो।
तीन दशकों से गूँजता हुआ नगाड़ों का वह खास ताल, नेतरहाट, टुटवापानी मोड़ के आंदोलन स्थल पर आज भी हजारों संख्या में लोगों को एकजुट करता है और बड़े रोष और जोश के नारों से गुंजायमान होकर पुराने सखुवा के पेड़ों से पत्ते भी हिलने लगते हैं। सामूहिकता ही इन एकजुट हुए लोगों की ताकत है जो मानवीय मूल्यों पर आधारित आदिवासियत में है। जल, जंगल, ज़मीन, जीव-जन्तु और आदिवासी के आपसी संबंध मानवीय भावनात्मक स्तर तक सीमित नहीं है, जिसको आज कृत्रिम तरीके से सुलझाने की कोशिश होती है परंतु यह तकनीकी तरीके से एक दूसरे के ऊपर अन्योन्यश्रित हैं। बाकी जो मुख्यधारा के तथाकथित सभ्य और समझदार लोग समझ ही जाएंगे कि जिसको वो प्राकृतिक संसाधन कहते हैं, वह खत्म हो जाएगा तो जलवायु परिवर्तन की मार सबको और अधिक झेलनी पड़ेगी। आदिवासियों के लिए प्रकृति ही अस्तित्व, अस्मिता और आजीविका है जिसे बचाने के लिए नेतरहाट फील्ड फ़ाइरिंग रेंज से प्रभावित 245 गाँव के लोग, अपने सामूहिक ताकत से हम सभी के बांटा (हिस्से) की भी इस लड़ाई को लड़ते आए हैं और पुरखों की विरासत की सुरक्षा के लिए आज भी इसे जारी रखे हैं। नेतरहाट आंदोलन के पुरखों और संघर्षशील साथियों को हूल जोहार!
एलीन श्रुति के साथ पिछले 6 सालों से कार्यरत हैं, उनके बारे में और जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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